सुमित्रानंदन पंत
संध्या के बाद
सिमटा पंख साँझ की लाली
जा बैठी अब तरु शिखरों पर
ताम्रपर्ण पीपल से, शतमुख
झरते चंचल स्वर्णिम निर्झर !
ज्योति स्तंभ-सा धँस सरिता में
सूर्य क्षितिज पर होता ओझल,
वृहद् जिह्म विश्लथ केंचुल-सा
लगता चितकबरा गंगाजल !
- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने गंगा नदी के किनारे के संध्याकालीन सौंदर्य का अति सुंदर चित्र प्रस्तुत किया है।
व्याख्या
- सूर्यास्त हो रहा है।
- संध्या के समय वातावरण में व्याप्त लालिमा सिमटनीशुरू हो गई है।
- संध्या रूपी पक्षी ने मानो अपने पैर फैला लिए हैं और वह वृक्षों की ऊँची चोटियों पर जा बैठी है।
- सूर्य की लालिमा के कारण पीपलके पत्ते ताँबे के रंग के समान हो गए हैं।
- पीपल के पत्ते अपनी स्वाभाविक चंचलता से झड़ते हुए से प्रतीत हो रहे हैं मानो सुनहरे झरनों का स्वरूपसम्मुख हो।
- सूर्यास्त के समय सूर्य का प्रतिबिंब नदी में पड़ता हुआ ऐसा प्रतीत होता है मानो प्रकाश-स्तंभ नदी में धीरे-धीरे प्रवेश कर रहा हो।
- इस प्रकार, सूर्य क्षितिज (वह स्थान जहाँ पृथ्वी और आकाश मिलते हुए दिखाई देते हैं) पर धीरे-धीरे ओझल हो रहा है।
- गंगा का विस्तृत जलक्षेत्र मंद, शांत और विशाल सर्प के चितकबरे (काले-सफ़ेद रंग का) रंग के साँप के केंचुल-सा लग रहा है।
- अर्थात दूर-दूर तक फैली हुई टेढ़ी-मेढ़ी गंगा का थका हुआ-सा मंद चितकबरा जल ऐसा लग रहा था, जैसे किसी साँप ने अपनी केंचुली छोड़ रखी हो।
धूपछाँह के रंग की रेती
अनिल ऊर्मियों से सर्षांकित
नील लहरियों में लोड़ित
पीला जल रजत जलद से बिंबित !
सिकता, सलिल, समीर सदा से
स्नेह पाश से बँधे समुज्ज्वल,
अनिल पिघलकर सलिल,
सलिल ज्यों गति द्रव खो बन गया लवोपल।
- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने गंगा नदी के किनारे के मनोरम संध्याकालीन प्राकृतिक सौंदर्य का वर्णन किया है।
व्याख्या
- धूप, छाँव व प्रकाश में हवा के हिलोरों की वज़ह से ऐसी धाराएँ बन रही हैं, जैसे साँप की टेढ़ी मेढ़ी आकृति जैसे चिह्न बन गई हो।
- नदी के जल में नीली लहरें उठ रही हैं, जो कभी छोटी और कभी बड़ी हो जाती हैं।
- आकाश में सफेद बादल छाए हैं, जिनकी छाँह के कारण नदी का जल पीले रंग का दिखाई दे रहा है, जो सोने जैसे रंग का नहीं है बल्कि उसमें सफेद रंग मिल गया है।
- रेत, पानी और हवा सदा से ही सुंदर प्रेम संबंधों के बंधन में बँधे रहते हैं।
- हवा चलने के कारण जब बर्फ पिघलने लगती है तो वह जल का रूप धारण कर लेती है और वही जल अपनी गति खोकर हिमखंड बन जाता है।
- नदी किनारे की रेत, जल में उठ रही नीली लहरें, नदी का पीला जल, आकाश में स्थित सफेद बादल, पिघलता बर्फ एवं छोटे-छोटे हिमखंड कवि के शब्दों से साकार हो उठे हैं।
शंख घंट बजते मंदिर में
लहरों में होता लय कंपन,
दीप शिखा-सा ज्वलित कलश
नभ में उठकर करता नीराजन !
तट पर बगुलों-सी वृद्धाएँ
विधवाएँ जप ध्यान में मगन,
मंथर धारा में बहता
जिनका अदृश्य, गति अंतर-रोदन !
व्याख्या
- मंदिर में तेज बजते शंख व घंटों की ध्वनि से गंगा के जल में भी कंपन अनुभव होने लगता है।
- मंदिर का ऊँचा कलश आकाश में दीपदान जैसा प्रतीत हो रहा है।
- यह जहाँ देवता की आरती का प्रतीक है, वहीं देर रात लौटते यात्रियों के लिए दीपशिखा का भी कार्य कर रहा है।
- नदी के तट पर श्वेत वस्त्र में बैठी वृद्ध विधवाओं का समूह ऐसा दिखाई देता है मानो वे बगुलों-सी पंक्ति में ध्यान में बैठी हों।
- ये वृद्धाएँ अपने भाग्य, अपनी दशा और अपनी अंतःपीड़ा को लेकर ही सरिता के तट पर दीपदान करने आई हैं।
- कवि कह रहे हैं कि गंगा की धीमी गति में इनके हृदय में स्थित सुख-दुःख ही बह रहा है।
- कहने का तात्पर्य यह है कि विधवाओं के मन की पीड़ा का बिंब कवि ने गंगा की मंथर (धीमी) धारा में देख रहा है।
दूर तमस रेखाओं-सी,
उड़ती पंखों की गति-सी चित्रित
सोन खगों की पाँति
आर्द्र ध्वनि से नीरव नभ करती मुखरित !
स्वर्ण चूर्ण-सी उड़ती गोरज
किरणों की बादल-सी जलकर,
सनन् तीर-सा जाता नभ में
ज्योतित पंखों कंठों का स्वर !
व्याख्या
- कवि कह रहे हैं कि संध्या के समय आकाश में दूर सोन पक्षियों की पंक्तियाँ अंधकार की काली-रेखा जैसी दिखलाई पड़ रही हैं।
- सूर्य की किरण पड़ने के कारण सुनहरे पंखों वाले पक्षियों की पंक्तियाँ आकाश में चित्रवत् प्रतीत हो रही हैं। उन्हें देख कर ऐसा लग रहा है मानो किसी ने आकाश में चित्र बना दिया हो।
- आकाश में उड़ते हुए सोन पक्षियों की पंक्तियाँ अपनी मधुर आवाज़ से शांत आकाश को गुंजायमान कर देती हैं।
- चरवाहे गायों को लेकर वापस अपने घरों की ओर लौट रहे हैं।
- गायों के खुरों से हवा में उड़ने वाली धूल सूर्य की किरणों से स्वर्णचूर्ण की तरह दिखाई दे रही है, जिसे देखकर ऐसा लगता है मानो आकाश में स्वर्णचूर्ण उड़ रहा हो।
- सोन पक्षियों के उड़ते हुए प्रकाशित पंखों की ध्वनि और उनके कंठों के स्वर से ऐसा लगता है जैसे आकाश में सनसनाती हुई आवाज़ से कोई तीर जा रहा हो।
लौटे खग, गायें घर लौटीं
लौटे कृषक श्रांत श्लथ डग धर
छिपे गृहों में म्लान चराचर
छाया भी हो गई अगोचर,
लौट पैंठ से व्यापारी भी
जाते घर, उस पार नाव पर,
ऊँटों, घोड़ों के संग बैठे
खाली बोरों पर, हुक्का भर।
- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने संध्या के समय घर की ओर लौटते पक्षियों, पशुओं, गायों, दिनभर मेहनत करने के बाद थके-हारे किसानों, बाज़ार से खरीदारी आदि करके वापस लौटते व्यापारियों का वर्णन किया है।
व्याख्या
- शाम के समय पक्षी अपने घोंसलों की ओर लौट रहे हैं। गायें भी अपने-अपने घर लौटने लगी हैं।
- थके-हारे किसान शिथिल गति से पैर रखते हुए अपने घरों की ओर लौट रहे हैं।
- अब तक जो चराचर जगत् कुछ-कुछ धुँधला-सा चमक रहा था
- वह भी अब आँखों से ओझल हो गया अर्थात् थके चर-अचर (जीव-जंतु) अपने-अपने घरों में छिपते जा रहे हैं।
- अंधकार फैलने लगा है और सब अपने-अपने घरों में छिप गए हैं।
- पैंठ (गाँव में लगने वाला छोटा बाज़ार) में सामान बेच रहे व्यापारी गंगा के उस पार जाने के लिए नाव पर जा रहे हैं।
- वे अपने ऊँटों और घोड़ों के साथ खाली बोरों पर बैठकर हुक्का भरकर गुड़गुड़ा रहे हैं।
जाड़ों की सूनी द्वाभा में
फूल रही निशि छाया गहरी,
डूब रहे निष्प्रभ विषाद में
खेत, बाग, गृह, तरु, तट, लहरी !
बिरहा गाते गाड़ी वाले,
भँक-भैंककर लड़ते कूकर,
हुआँ-हुआँ करते सियार
देते विषणव निशि बेला को स्वर !
- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने सर्दी के मौसम की संध्या का वर्णन किया है। सर्दी के मौसम में जल्दी ही अँधेरा छा जाता है।
व्याख्या
- शीत ऋतु की रात्रि में वातावरण में दुहरा सूनापन व्याप्त है।
- शीत की अधिकता एवं रात्रि का अँधेरा दोनों ही वातावरण को गंभीर बना रहे हैं, जिसे कवि ने ग्रामीण शब्दावली में कहा है कि रात की गहरी छाया फूल रही है।
- खेत, उद्यान, घर, वृक्ष, नदी के तट, लहरें आदि रात के अँधेरे में ऐसे दिखाई दे रहे हैं मानो आभाहीन दुःख में डुबकी लगा रहे हों।
- अँधेरे के कारण इस क्षेत्र में कहीं भी सौंदर्य नहीं है।लोग अपने घरों में बंद हो जाते हैं।सड़कों पर मौन व्याप्त हो जाता है,
- इस शांत वातावरण में कुत्तों की आवाज़ या सियारों की आवाज़ भी मौन को भंग करती है। अर्थात कुत्ते आपस में लड़ते हैं और सियार हुआँ-हुओं की आवज करते हैं।
- इन पशुओं की आवाज़ से वातावरण भयावह हो जाता है। ऐसा लगता है मानो दुःख ने अपना साम्राज्य स्थापित कर लिया हो।
माली की मँड़ई से उठ,
नभ के नीचे नभ-सी धूमाली
मंद पवन में तिरती
नीली, रेशम की-सी हल्की जाली बत्ती जला दुकानों में
बैठे सब कस्बे के व्यापारी,
मौन मंद आभा में
हिम की ऊँघ रही लंबी अँधियारी !
व्याख्या
- जाड़े को दूर करने के लिए माली ने पुआल जलाया है जिसका धुआँ ऊपर स्थिर हो गया है। उसे देखकर ऐसा लगता है मानो आकाश के नीचे धुएँ का आकाश हो।
- यह धुएँ का आकाश हवा की गति से धीरे-धीरे तैरता हुआ-सा मालूम पड़ रहा है।कस्बों के छोटे-छोटे व्यापारी अपनी दुकानों पर बत्ती जलाकर बैठे हैं जिसका प्रकाश बहुत ही कम है।
- चारों ओर एक मौन छाया हुआ है।ऊँघते हुए अँधेरे को देखकर ऐसा लगता है जैसे अंधकार भरी रात बहुत लंबी हो गई हो।
धुआँ अधिक देती है
टिन की ढबरी, कम करती उजियाला,
मन से कढ़ अवसाद श्रांति
आँखों के आगे बुनती जाला!
छोटी-सी बस्ती के भीतर
लेन-देन के थोथे सपने
दीपक के मंडल में मिलकर
मँडराते घिर सुख-दुःख अपने!
व्याख्या
- कवि कहते हैं कि मिट्टी के तेल से जलने वाली ढिबरी धुआँ अधिक देती है, जबकि उसका प्रकाश बहुत कम होता है।
- गाँवों में बिजली नहीं होती। गरीब ग्रामीण टिन की ढिबरी में मिट्टी का तेल भरकर हल्का-सा मंद प्रकाश कर लेते हैं।
- वह ढिबरी जहाँ कुछ प्रकाश देती है, वहाँ अपने धुएँ से अंधकार भी करती है।
- ग्रामीण जनों के मन के दुःख इस थकावट के समय उनको व्याकुल करने लगते हैं।
- ढिबरी के धुएँ से आँखों के आगे जाला-सा बन जाता है। यहीं इस छोटे से गाँव में लोग इकट्ठा होते हैं और अपने आय-व्यय के बारे में व्यर्थ का चिंतन करते हैं।
- ऐसा लगता है कि इस दीपक की रोशनी में इनके सुख-दुःख मँडरा रहे हैं अर्थात् जब तक दिया जल रहा है, ये इस प्रकार की बातें एक-दूसरे से करते हैं।
कँप-कँप उठते लौ के संग
कातर उर क्रंदन, मूक निराशा,
क्षीण ज्योति ने चुपके ज्यों।
गोपन मन को दे दी हो भाषा !
लीन हो गई क्षण में बस्ती,
मिट्टी खपरे के घर आँगन,
भूल गए लाला अपनी सुधि,
भूल गया सब ब्याज, मूलधन !
व्याख्या
- कवि कहते हैं कि प्रकाश के लिए टिन की ढिबरी जल रही है।
- हवा की लहर से ढिबरी की लौ काँप उठती है ठीक इसी प्रकार इस प्रकाश में बैठे व्यक्तियों के मन भी अपनी असफलताओं व निराशाओं से व्याकुल हो उठते हैं।
- हल्के प्रकाश में वे अपने मन में छिपी अपनी करुण कथा को अथवा अपने विचारों को प्रकट करने का साहस जुटा पाते हैं।
- रात बढ़ने लगी तो सारी बस्ती, उनके खपरैल के मकान, घर, आँगन सब अंधकार में डूब गए। गाँव का बनिया अपने मूल व सूद सबकी बातें भूल बैठा और नींद में खो गया है।
सकुची-सी परचून किराने की ढेरी लग रहीं ही तुच्छतर,
इस नीरव प्रदोष में आकुल
उमड़ रहा अंतर जग बाहर !
अनुभव करता लाला का मन,
छोटी हस्ती का सस्तापन,
जाग उठा, उसमें मानव,
औ' असफल जीवन का उत्पीड़न ।
व्याख्या
- कवि कहता है कि लाला (दुकानदार/बनिया) की दैनिक उपभोग की वस्तुओं की दुकान सिमटी-सी लगती है, क्योंकि उसमें सामान बहुत कम बचा है।
- ऐसी छोटी-छोटी अनाज की ढेरियों को दुकानदार बहुत ही तुच्छ से तुच्छ समझ रहा है।
- संध्याकाल में वातावरण शांत है, कोई ग्राहक नहीं है।
- रात्रि के इस शांत-मौन प्रथम प्रहर में लाला का मन भी दुःखी है।
- वह अपनी हीन अवस्था को महसूस कर रहा है उसे लगता है कि उसका कोई महत्त्व नहीं है।
- इस वातावरण में उसका वह मानव व्यक्तिव जाग उठा है, जो जीवन की असफलताओं व उत्पीड़न को पाकर सामान्यतः जागा करता है,
- ऐसे मौके पर वह सोचता है कि मेरे जीवन में निराशा और दुःखों के सिवाय कुछ भी नही है।
दैन्य दुःख अपमान ग्लानि
चिर क्षुधित पिपासा, मृत अभिलाषा,
बिना आय की क्लांति बन रही
उसके जीवन की परिभाषा!
जड़ अनाज के ढेर सदृश पर
वह दिन-भर बैठा गद्दी पर
बात-बात पर झूठ बोलता
कौड़ी की स्पर्द्धा में मर-मर!
- प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने लाला (छोटे-मोटे दुकानदार) की उस विवशता का वर्णन किया है, जिसमें वह दिनभर दुकान पर बैठने के बाद भी अपने परिवार के सदस्यों के लिए सुख के साधन उपलब्ध नहीं करा पाता।
व्याख्या
- कवि कहता है कि लाला अपनी दुकान पर विचारमग्न अवस्था में अपने जीवन की असफलताओं के विषय में सोचता है कि
- मैंने जीवन में दुःख, दीनता, अपमान, ग्लानि, कभी न पूर्ण होने वाली कामनाओं की आकांक्षा, अतृप्त अभिलाषाओं के अतिरिक्त और कुछ नहीं पाया है।
- उसे सदैव यही चिंता सताती है कि उसकी आय पर्याप्त नहीं है उसका मन इस बात से ग्लानि से भर जाता है कि कम आय के कारण उसका जीवन दुःखों से भर गया है।
- वह अपनी तुलना जड़ अनाज की ढेरी से करता है, जिस प्रकार अनाज की ढेरी सारे दिन पड़ी रहकर गतिविहीन बनी रहती है,
- उसी प्रकार वह भी ग्राहक के अभाव में दिनभर गद्दी पर बैठा हुआ अनाज की ढेरी के समान जड़ बना रहता है।
फिर भी क्या कुटुंब पलता है।
रहते स्वच्छ सुघर सब परिजन?
बना पा रहा वह पक्का घर?
मन में सुख है? जुटता है धन ?
खिसक गई कंधों से कथड़ी
ठिठुर रहा अब सर्दी से तन,
सोच रहा बस्ती का बनिया
घोर विवशता का निज कारण !
व्याख्या
- छोटी ग्रामीण बस्ती का बनिया अपनी भयंकर विवशता के कारणों के विषय में सोच रहा है,
- वह सोचता है कि दिनभर बात-बात पर झूठ बोलकर, दुःख व अपमान सहता है। क्या उससे अपने परिवार का सही ढंग से पालन कर पा रहा है?
- क्या अपने को मारकर और कम तोलकर भी उसका मकान पक्का बन सका? क्या उसके मन ने सुख की अनुभूति अनुभव की?क्या मै कुछ धन इकट्ठा कर सका?
- यह सोचते-सोचते उसके कंधों से उसकी गुदड़ी खिसक गई और अब उसका शरीर जाड़े के कारण काँपने लगा। धन के अभाव में वह अपने परिवार का भरण-पोषण करने में असमर्थ हैं।
- सर्दी के इस मौसम में ठंड से ठिठुरता हुआ लाला अपनी लाचारी और गरीबी के कारणों को खोज रहा था।
शहरी बनियों-सा वह भी उठ
क्यों बन जाता नहीं महाजन ?
रोक दिए हैं किसने उसकी
जीवन उन्नति के सब साधन ?
यह क्या संभव नहीं
व्यवस्था में जग की कुछ हो परिवर्तन?
कर्म और गुण के समान ही
सकल आय व्यय का हो वितरण
- प्रस्तुत पंक्तियों के माध्यम से कवि समाज में फैली विषमता का वर्णन करते हुए इसे दूर करने के विषय में बताता है।
व्याख्या
- लाला अपनी किराने की दुकान पर बैठा हुआ यह सोच रहा है कि वह भी शहरी बनिये की तरह बड़ा सेठ क्यों नहीं बन जाता?
- यदि उसके पास धन हो गया तो वह भी महाजनी करने लगेगा और उससे अर्जित ब्याज से सुख से रहेगा।
- वह सोचता है कि वह कौन है जिसने उसके जीवन की उन्नति के सभी साधन बंद कर दिए हैं?
- वह किसी भी प्रकार आगे नहीं बढ़ पा रहा है। क्या यह संभव नहीं है कि वर्तमान में जो व्यवस्था कायम है । उसमें परिवर्तन हो ?
- परिवर्तन से ही उसके जैसे दीनहीन जनों की दशा में बदलाव आ सकता है ।काम और गुण के अनुसार समाज में आय व्यय का बंटवारा किया जाए, जबकि ऐसा बिलकुल भी नहीं हो रहा है।
घुसे घरौंदों में मिट्टी के
अपनी-अपनी सोच रहे जन,
क्या ऐसा कुछ नहीं,
फूँक दे जो सबमें सामूहिक जीवन ?
मिलकर जन निर्माण करें जग,
मिलकर भोग करें जीवन का,
न विमुक्त हो जन-शोषण से,
हो समाज अधिकारी धन का?
व्याख्या
- कवि कहते हैं कि लाला (दुकानदार) की तरह बहुत से और लोग भी हैं, जो सर्दी की इस रात में अपने-अपने मिट्टी के छोटे-छोटे घरों में घुसे हुए अपनी आर्थिक स्थित के बारे में सोच रहे हैं।
- क्या कोई ऐसा मनुष्य नहीं जो लोगों को प्रेरित करे कि वो मिलकर सामूहिकता की भावना को उत्पन्न करें ऐसी प्रेरणा देने वाला कोई सामने आए।
- यदि ऐसी सामूहिक भावना उत्पन्न हो जाए तो सभी मिलकर कार्य करें फिर जो उपलब्धि हो उसे मिलकर भोगें तो व्यक्ति उत्पीड़न से मुक्ति मिलना संभव है उस समय धन का उत्तर दायित्व व्यक्ति का नही बल्कि समाज का होगा।
दरिद्रता पापों की जननी,
मिटें जनों के पाप, ताप, भय,
सुंदर हों अधिवास, वसन, तन,
पशु पर फिर मानव की हो जय?
व्यक्ति नहीं, जग की परिपाटी
दोषी जन के दुःख क्लेश की,
जन का श्रम जन में बँट जाए,
प्रजा सुखी हो देश-देश की !
व्याख्या
- ग्रामीण समाज के बनिये की चिंतनधारा बिना रुके चल रही है।
- वह सोच रहा है कि दरिद्रता ही सभी पापों को जन्म देती है उसी के यदि गरीबी मिट जाए तो लोग पाप नहीं करेंगे,उनके दुःख और डर भी समाप्त हो जाएँगे व्यक्ति का शरीर स्वस्थ्य होगा, सुंदर वस्त्र होंगे।
- केवल अपने बारे में ही सोचने की पशुवृत्ति पर परहित चिंतन वाली मानवीय प्रवृत्ति की विजय होगी, क्योंकि जब-जब मनुष्य पर पशुता छाती है तो वह अनैतिक कार्यों में जुट जाता है।
- यह दशा केवल किसी एक व्यक्ति की नहीं, बल्कि पूरे समाज, राष्ट्र और संसार की है।
- अतः हमारी इस दशा के लिए व्यक्ति को दोष देना व्यर्थ है, वस्तुतः दोषी हमारी प्राचीन परंपराएँ व मान्यताएँ हैं।
- हम ऐसी व्यवस्था करें कि व्यक्ति की आय समाज की आय बन जाए तब निश्चय ही संसार की प्रजा सुख का अनुभव करने लगेगी।
टूट गया वह स्वप्न वणिक का
आई जब बुढ़िया बेचारी,
आध-पाव आटा लेने
लो, लाला ने फिर डंडी मारी !
चीख उठा घुघ्घू डालों में
लोगों ने पट दिए द्वार पर,
निगल रहा बस्ती को धीरे,
गाढ़ अलस निद्रा का अजगर !
- प्रसंग प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने लाला (दुकानदार) के चिंतन के बाद उसके व्यवहार का वर्णन किया है उसकी गरीबी उसे यह सब करने को विवश करती है।
व्याख्या
- कवि कहते हैं कि सर्दी की रात में लाला सभी व्यक्तियों के सुख और दुःख की कल्पना का स्वप्न देख रहा था
- तभी एक बुढ़िया आधा-पाव आटा लेने आई और उसे (लाला को) कल्पनालोक से बाहर आना पड़ा। लाला ने देश का विचार छोड़ दिया। कम आटा तोलकर बेइमानी की।
- यह चालाकी उसने तराजू की डंडी को हाथ से दबाकर की। यह देख पेड़ पर बैठा उल्लू चीख उठा। इसका चीखना अशुभ माना जाता है।
- कवि को यह आभास होता है कि समाज को इस गरीबी से छुटकारा मिलना आसान नहीं है। अंधकार और सर्दी बढ़ती जा रही थी, इसलिए लोगों ने अपने घरों के द्वार बंद कर लिए। धीरे-धीरे लोग नींद में डूबते जा रहे थे।